रविवार, जून 10, 2007

दोंनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के-फैज़

दोंनों जहान तेरी मोहब्बत में हार केवो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीरां है मैकदा ख़ुमो-साग़र उदास हैंतुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के

इक फुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिनदेखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दियातुझ से भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज फै़जमत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के
हम पर तुम्हारी चाह का इल्जा़म ही तो हैदुश्नाम तो नहीं है ये अक़ाम ही तो है

करते हैं जिसपे तअन कोई जुर्म तो नहींशौके-फिज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है
दिल नाउमीद तो नहीं नाकाम ही तो हैलम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

फैज़

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