शुक्रवार, अप्रैल 23, 2010

किसको फिक्र है?

मुश्किल है परिंदों का बसर किसको फिक्र है
क्यूँ अनमना खडा है शज़र किसको फिक्र है

सूरज की रौशनी से मुतास्सिर है ज़माना
सदियों से जल रहा है अगर किसको फिक्र है

ख्वाबों में घर बना के जिसने उम्र काट दी
वो भीड़ से अलग था मगर किसको फिक्र है

खिड़की खुली थी लोरियां गाकर सुला गईं
है दश्त में हवाओं का घर किसको फिक्र है

जो नेकियाँ मेरी है वो खुदा की देन है
मेरा गुनाह मेरे ही सर किसको फिक्र है

नज़रें चुरा के चल दिए जो हमसफ़र थे लोग
अब राह तकती है नज़र किसको फिक्र है

किसको है इंतज़ार मेरा ज़िन्दगी के पार
ज़ारी है बहरहाल सफ़र किसको फिक्र है

1 टिप्पणी:

शोभित जैन ने कहा…

आदरणीय ब्लॉग पढ़ना जब शुरू किया तो पहली ही गज़ल में महसूस हो गया था कि कि किसी बहुत अच्छे गजलकार से रूबरू हो रहा हूँ, "किसको फ़िक्र है" जैसी गज़ल और इस जैसे शेर ने सुबह को खुशनुमा कर दिया....

घर बनाने का तज़ुर्बा था बहुत
घर में रहना कभी आदत न हुई


बहुत बहुत साधुवाद ...